जीवनी/आत्मकथा >> घूमती नदी घूमती नदीवारिस किरमानी
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प्रख्यात विद्वान प्रोफ़ेसर वारिस किरमानी की आत्मकथा ‘घूमती नदी’
प्रख्यात विद्वान प्रोफ़ेसर वारिस किरमानी की आत्मकथा ‘घूमती नदी’ एक दस्तावेज़ी किताब है। किताब के पहले अध्याय को ‘ख़श्बु-ए-पैरहन’ का शीर्षक दिया गया है। यह नहीं मालूम कि प्रो. किरमानी ने ‘गोमती नदी’ का नाम ‘घूमती नदी’ कहाँ से लिया है। हमारे पुराने साहित्य में इस नदी को गोमती नदी ही लिखा गया है। किरमानी साहब ने गोमती के किनारे हरेभरे मैदानों, खेतों और पुराने क़स्बों की आलीशान मस्जिदों और मन्दिरों का जिक्र बड़े खूबसूरत अंदाज में किया है।
अवध का रहन-सहन, साहित्य संस्कृति, भाषा, आपसी मेलजोल, भाईचारा, आपसी एकता और अखण्डता की जीती-जागती तस्वीरें इस किताब में विशिष्ट प्रकार से मौजूद हैं। अवधी ज़बान, हिन्दुस्तानी मान्यताओं और धार्मिक आस्थाओं की ऐसी झलकियाँ पेश की गयी हैं कि पाठक उन अनुभूतियों में खो जाता है और गुज़री हुई ज़िन्दगी की प्रतिध्वनि साफ सुनायी देती है।
किरमानी जी के माता-पिता की मृत्यु के बाद मजबूरियों और अभावों का वर्णन भी बहुत मार्मिक है। किताब में जगह-जगह ऐतिहासिक घटनाएँ दुहरायी गई हैं, जिससे उनके ऐतिहासिक ज्ञान का पता चलता है। जैसा कि उन्होंने दिल्ली के सुल्तान इल्तुतमिश के बचपन का वर्णन एक फारसी किताब से उद्धृत किया है। इसी तरह औरंगजेब के समय की भी एक घटना उल्लिखित की है, जिससे शहंशाह के बारे में ग़लतफ़हमी दूर होती है। इसी के साथ वारिस साहब ने अपने पूर्वजों के बारे में एक दिलचल्प घटना लिखी है जिसके स्रोत का उल्लेख किताब में नहीं है। किताब में वारिस साहब के बचपन, उनके माता-पिता और गुरुजनों का आदतों, तौर-तरीकों, लिबास और व्यवहारिक रंग-ढंग का उल्लेख सामाजिक इतिहास का हिस्सा है, जिसे दस्तावेज़ी हैसियत हासिल है।
किरमानी साहब की आत्मकथा जोश मलीहाबादी की ‘यादों की बारात’ से कहीं ज़ियादा साहित्यिक और दिलचस्प है, जिसे पूरी पढ़े बग़ैर रखने को जी नहीं चाहता।
अवध का रहन-सहन, साहित्य संस्कृति, भाषा, आपसी मेलजोल, भाईचारा, आपसी एकता और अखण्डता की जीती-जागती तस्वीरें इस किताब में विशिष्ट प्रकार से मौजूद हैं। अवधी ज़बान, हिन्दुस्तानी मान्यताओं और धार्मिक आस्थाओं की ऐसी झलकियाँ पेश की गयी हैं कि पाठक उन अनुभूतियों में खो जाता है और गुज़री हुई ज़िन्दगी की प्रतिध्वनि साफ सुनायी देती है।
किरमानी जी के माता-पिता की मृत्यु के बाद मजबूरियों और अभावों का वर्णन भी बहुत मार्मिक है। किताब में जगह-जगह ऐतिहासिक घटनाएँ दुहरायी गई हैं, जिससे उनके ऐतिहासिक ज्ञान का पता चलता है। जैसा कि उन्होंने दिल्ली के सुल्तान इल्तुतमिश के बचपन का वर्णन एक फारसी किताब से उद्धृत किया है। इसी तरह औरंगजेब के समय की भी एक घटना उल्लिखित की है, जिससे शहंशाह के बारे में ग़लतफ़हमी दूर होती है। इसी के साथ वारिस साहब ने अपने पूर्वजों के बारे में एक दिलचल्प घटना लिखी है जिसके स्रोत का उल्लेख किताब में नहीं है। किताब में वारिस साहब के बचपन, उनके माता-पिता और गुरुजनों का आदतों, तौर-तरीकों, लिबास और व्यवहारिक रंग-ढंग का उल्लेख सामाजिक इतिहास का हिस्सा है, जिसे दस्तावेज़ी हैसियत हासिल है।
किरमानी साहब की आत्मकथा जोश मलीहाबादी की ‘यादों की बारात’ से कहीं ज़ियादा साहित्यिक और दिलचस्प है, जिसे पूरी पढ़े बग़ैर रखने को जी नहीं चाहता।
(पुस्तक की भूमिका से)
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